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‘द बंगाल फाइल्स’ रिव्यू: विवेक अग्निहोत्री की फिल्म में जहर भरा नैरेटिव, खून-खराबा और राजनीति का मसाला

By Ayush

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रिपोर्ट: 5 सितंबर 2025

महामारी के दौर में जब बूस्टर डोज़ शब्द आम हो गया था, अब डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री ने भी अपने सिनेमाई बूस्टर डोज़ के जरिए राजनीति और समाज पर असर डालने की कोशिश की है। ‘द कश्मीर फाइल्स’ के बाद वे अब ‘द बंगाल फाइल्स’ लेकर आए हैं, जहां एक बार फिर इतिहास और वर्तमान को मिलाकर दर्शकों की भावनाओं को झकझोरने की कोशिश की गई है।

फिल्म का नैरेटिव साफ तौर पर एक समुदाय के खिलाफ खड़ा दिखता है। कहानी में 1946 के कलकत्ता दंगे और नोआखली दंगे को आज के बंगाल की राजनीति और अवैध प्रवास से जोड़कर दिखाया गया है। सवाल उठाया जाता है—क्या बंगाल नया कश्मीर है? यह सब कुछ राज्य के आगामी चुनावों से ठीक पहले फिल्म को राजनीतिक रंग देता है।


फिल्म की कहानी

‘द बंगाल फाइल्स’ की कहानी शिवा पंडित (दर्शन कुमार) पर टिकी है, जिसे मुर्शिदाबाद भेजा जाता है एक आदिवासी लड़की की गुमशुदगी की जांच करने। यहां उसका सामना स्थानीय नेता सरदार हुसैनी (सस्वता चटर्जी) से होता है। जब शिवा सरदार को चुनौती देता है तो उसके सीनियर (पुनीत इस्सर) उसे माफी मांगने के लिए कहते हैं ताकि दंगे न भड़कें।

कहानी फ्लैशबैक में जाती है जहां भारती बनर्जी (सिमरत कौर/पल्लवी जोशी) पार्टिशन के जख्म सुनाती हैं। इसी के जरिए फिल्म यह संदेश देती है कि बंगाल की मौजूदा राजनीति, वोट बैंक और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की जड़ें पार्टिशन में छिपी हैं।

SRC- TheHindu


कलाकार और अभिनय

फिल्म में दर्शन कुमार, सस्वता चटर्जी, पल्लवी जोशी और अनुपम खेर के दमदार परफॉर्मेंस देखने को मिलते हैं। मिथुन चक्रवर्ती का छोटा लेकिन अहम कैमियो राजनीतिक सन्दर्भों को और मजबूत करता है।


फिल्म का ट्रीटमेंट

विवेक अग्निहोत्री ने ‘द कश्मीर फाइल्स’ से और आगे बढ़ते हुए इस फिल्म में हिंसा और खून-खराबे को खुलकर दिखाया है। दंगों के दृश्य इतने ग्राफिक हैं कि देखने वालों के लिए झकझोर देने वाले साबित हो सकते हैं।
हालांकि, आलोचकों का कहना है कि फिल्म पूरी तरह से प्रोपेगेंडा लगती है—जहां ब्रिटिशों को क्लीन चिट दी जाती है, कांग्रेस को कमजोर और स्वार्थी बताया जाता है, जबकि हिंदू महासभा को नायक के रूप में पेश किया गया है।

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विवादास्पद पहलू

  • फिल्म में गांधी जी का चित्रण कमजोर और हास्यास्पद बताया गया है।
  • जिन्ना और गांधी के बीच संवाद को आज की राजनीति से जोड़कर दिखाया गया है।
  • आम मुसलमान परिवारों का दर्द स्क्रीन पर जगह नहीं पाता, जबकि पूरे समुदाय को कठघरे में खड़ा किया गया है।

निष्कर्ष

फिल्म करीब तीन घंटे लंबी है और लगातार भावनाओं को उकसाने की कोशिश करती है। यह दर्शकों को बांधती जरूर है, लेकिन इतिहास की सच्चाई से छेड़छाड़ और एकतरफा नैरेटिव साफ नजर आता है। ‘द बंगाल फाइल्स’ थिएटर्स में चल रही है और इसे देखकर समझ आता है कि विवेक अग्निहोत्री अपनी फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं।

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